'कन्हैया' से कैसे निपटेंगे बीजेपी के 'गिरिराज'
नई दिल्ली। बीजेपी के बड़बोले सांसद गिरिराज सिंह भले ही अपनी सीट बदले जाने को लेकर नाखुशी जता रहे हैं, लेकिन उनकी पार्टी ने एक सोची-समझी रणनीति के तहत उन्हें बेगूसराय से चुनाव लड़ने की जिम्मेदारी सौंपी है। माना जा रहा है कि सीपीआई जेएनयू कांड से चर्चित हुए छात्र नेता कन्हैया कुमार को वहां से उतारना चाहती है और बीजेपी ने उसी की काट के लिए उसके विरोधी गिरिराज को चुना है।
2014 लोकसभा चुनाव से पहले से ही गिरिराज सिंह ने अपनी छवि कट्टर हिंदुवादी और राष्ट्रवादी नेता की बना ली थी। किसी भी विवादित मुद्दे पर उनका तेवर बहुत ही तीखा होता है। इससे बीजेपी को ध्रुवीकरण में सहायता मिलती है। खास बात ये है कि जेएनयू कांड में भी वे कन्हैया कुमार और उनके साथियों के मुखर विरोधी थे। उन्होंने 'टुकड़े-टुकड़े' कांड में हल्ला बोलने का कोई मौका नहीं छोड़ा था। बीजेपी नेतृत्व को लगता है, गिरिराज की यही छवि बेगूसराय में पार्टी के काम आ सकती है और पार्टी दोनों के बीच जुबानी टक्कर के बीच आसानी से ध्रुवीकरण की कोशिश कर सकती है।
बिहार का बेगूसराय 'पूरब का लेनिनग्राद' के नाम से विख्यात रहा है। लेकिन, ये भी सच्चाई है कि लोकसभा चुनावों में यह छवि कम्यूनिस्टों के लिए अच्छी खबर नहीं लाती है। सीपीआई यहां से सिर्फ एक बार 1967 में जीती थी। अलबत्ता, विधानसभा चुनावों में इलाके में पार्टी का दबदबा जरूर दिखता रहा है। पिछले तीन लोकसभा चुनावों पर नजर डालें तो यहां से हर बार एनडीए को ही जीत मिली है।
वैसे कन्हैया कुमार को उम्मीदवार बनाने के पीछे की सोच ये है कि उनके चर्चित नाम का पार्टी को फायदा मिल सकता है। खासकर इसलिए भी कि वे बेगूसराय के ही रहने वाले हैं और वो भूमिहार भी हैं। दरअसल यहां भूमिहार मतदाता ही आमतौर पर हार-जीत सुनिश्चित करते रहे हैं। लेकिन, गिरिराज के मैदान में उतरने से कन्हैया के मुकाबले उनका पलड़ा इस लिहाज से भी भारी पड़ सकता है, क्योंकि वो भी भूमिहार हैं और कई साल से बिहार और भूमिहारों की राजनीति में अच्छी पकड़ भी रखते हैं।
आरजेडी ने कन्हैया कुमार की टेंशन और बढ़ा दी है। उम्मीद थी कि बीजेपी को हराने के नाम पर वो उनका समर्थन करेगी, लेकिन खबरों के मुताबिक आरजेडी ने इससे इनकार कर दिया है। निश्चित रूप से अगर कन्हैया कुमार विपक्षी गठबंधन के एकमात्र उम्मीदवार होते, तो गिरिराज को अच्छी चुनौती दे सकते थे। लेकिन, आरजेडी की ओर से प्रत्याशी के तौर पर तंवर हुसैन का नाम उछलने से बीजेपी को कन्हैया की घेरेबंदी का एक और मजबूद हथियार मिल गया है।
2014 लोकसभा चुनाव से पहले से ही गिरिराज सिंह ने अपनी छवि कट्टर हिंदुवादी और राष्ट्रवादी नेता की बना ली थी। किसी भी विवादित मुद्दे पर उनका तेवर बहुत ही तीखा होता है। इससे बीजेपी को ध्रुवीकरण में सहायता मिलती है। खास बात ये है कि जेएनयू कांड में भी वे कन्हैया कुमार और उनके साथियों के मुखर विरोधी थे। उन्होंने 'टुकड़े-टुकड़े' कांड में हल्ला बोलने का कोई मौका नहीं छोड़ा था। बीजेपी नेतृत्व को लगता है, गिरिराज की यही छवि बेगूसराय में पार्टी के काम आ सकती है और पार्टी दोनों के बीच जुबानी टक्कर के बीच आसानी से ध्रुवीकरण की कोशिश कर सकती है।
बिहार का बेगूसराय 'पूरब का लेनिनग्राद' के नाम से विख्यात रहा है। लेकिन, ये भी सच्चाई है कि लोकसभा चुनावों में यह छवि कम्यूनिस्टों के लिए अच्छी खबर नहीं लाती है। सीपीआई यहां से सिर्फ एक बार 1967 में जीती थी। अलबत्ता, विधानसभा चुनावों में इलाके में पार्टी का दबदबा जरूर दिखता रहा है। पिछले तीन लोकसभा चुनावों पर नजर डालें तो यहां से हर बार एनडीए को ही जीत मिली है।
वैसे कन्हैया कुमार को उम्मीदवार बनाने के पीछे की सोच ये है कि उनके चर्चित नाम का पार्टी को फायदा मिल सकता है। खासकर इसलिए भी कि वे बेगूसराय के ही रहने वाले हैं और वो भूमिहार भी हैं। दरअसल यहां भूमिहार मतदाता ही आमतौर पर हार-जीत सुनिश्चित करते रहे हैं। लेकिन, गिरिराज के मैदान में उतरने से कन्हैया के मुकाबले उनका पलड़ा इस लिहाज से भी भारी पड़ सकता है, क्योंकि वो भी भूमिहार हैं और कई साल से बिहार और भूमिहारों की राजनीति में अच्छी पकड़ भी रखते हैं।
आरजेडी ने कन्हैया कुमार की टेंशन और बढ़ा दी है। उम्मीद थी कि बीजेपी को हराने के नाम पर वो उनका समर्थन करेगी, लेकिन खबरों के मुताबिक आरजेडी ने इससे इनकार कर दिया है। निश्चित रूप से अगर कन्हैया कुमार विपक्षी गठबंधन के एकमात्र उम्मीदवार होते, तो गिरिराज को अच्छी चुनौती दे सकते थे। लेकिन, आरजेडी की ओर से प्रत्याशी के तौर पर तंवर हुसैन का नाम उछलने से बीजेपी को कन्हैया की घेरेबंदी का एक और मजबूद हथियार मिल गया है।
No comments