फागुनी गीतों की लोक परम्परा हो रही है विलुप्त
बेल्थरारोड, बलिया।होली खेले रघुबीरा अवध में, आज विरज में होली रेे रसिया, बम भोले बाबा बम भोले बाबा कहां रंगवल पागरिया.. गाती हुरियारों की मंडली जब गावोंफागुनी गीतों की लोक परम्परा हो रही है विलुप्त में घूमती थी तो अनायास ही मन होलियाना हो जाता था। अब गवई इलाकों से फागुनी गीतों की लोक परंपरा धीरे धीरे समाप्त होती जा रही हैं। होली का पर्व नजदीक आने के बावजूद अब गांवों में होली गीत, फगुआ, चैता, लचारी, कहंरवा आदि गीत सुनाई नहीं दे रहा है।
दो दशक पहले बसंत पंचमी के बाद से ही फाग गीत अपनी मधुर धुन से सभी को अपनी ओर आकर्षित करते थे। अब पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति युवाओं पर इस कदर हावी हो गई है कि पुरानी लोकगीत और परंपराएं विलुप्त होती नजर आ रहीं हैं। इस भागम भाग भरी दुनिया में गांव भी इतना आगे निकल गया है कि अपनी लोक परंपरा को भूल गया है। एक समय था जब फागुन महीना चढ़ते ही गांव गांव में फागुनी गीत सुनाई देते थे। बड़े, बूढ़े, जवान सभी एक साथ मंदिर, मैदान, चौपाल या गांव के किसी व्यक्ति के दरवाजे पर शाम होते ही बैठ जाते थे। ढ़ोलक, हारमोनियम, झांझ और मंजीरे की धुन पर सुर में सुर मिलाते थे। कभी होली गीत, फगुआ, चैता, कभी लचारी तो कभी कहंरवा इन लोकगीतों की धुन पर जैसे पूरा गांव ही फागुनी बयार में डूब जाता था। इन गीतों से गांव की एकता और परस्पर प्रेम परवान चढ़ता था।समय के साथ जैसे जैसे यह लोक गीत और परंपराएं गायब हो रही हैं वैसे ही गांव की एकता, परस्पर प्रेम और आदर भी विलीन होता जा रहा है। रंगो से सराबोर कर देने वाली होली में मिठास घोलने वाली जोगीरा..... की बोली भी अब खामोश हो गई है। फाग का राग, ढोलक की थाप और झांझो की झंकार में जो मिठास था, अब वह मिठास डीजे की कान फाड़ू शोर में गुम हो गया है। एक जमाना था, जब बसंत पंचमी के दिन से ही घर घर घूमकर लोग फाग गाते थे और होली के बाद लगभग एक पखवाड़े तक चैता गाकर आनंद उठाते थे। अब यह परम्परा गावों से लुप्त हो गई है। नई पीढ़ी फिल्मी व भोजपुरी गीतों की ओर आकर्षित है।
संतोष द्विवेदी
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