समृद्धि का प्रतीक कुआं का अस्तित्व खतरे में
रतसर (बलिया):कस्बा सहित ग्रामीण क्षेत्रों में प्राचीन जल स्त्रोत कुएं लगभग समाप्ति की ओर जा रहे हैं। जहां पेयजल सुविधा के लिए मुहल्लों में कुआँ होता था। वहीं आज कुओं को मिट्टी,कूड़ा डालकर बंद किए जा रहे है। अब लोग जल संस्थान के सहारे हो चुके हैं या फिर हैंडपंप का पानी पी रहे हैं। आर्किटेक्ट इन्जीनियर गणेशी पाण्डेय बताते है कि पहले लोग कस्बा व ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल की सुविधा के लिए लोग कुआं की स्थापना कराते थे।प्रत्येक मुहल्लों में लगभग एक कुआं बना रहता था। जिससे कि पुरुषों की अनुपस्थिति में महिलाएं भी पानी भर सकें। बुजुर्ग शिक्षक प्रेम नारायन पाण्डेय अतीत को याद करते हुए बताया कि प्राचीन काल में गांव व व्यक्ति की समृद्धि को कुओं से आंका जाता था। जिस गांव में कुओं की संख्या ज्यादा थी। वह गांव समृद्ध गांवों में शुमार होता था। कुओं से न केवल लोगों को पेयजल उपलब्ध होता था,बल्कि खेतों की सिचाई भी की जाती थी। न कभी बिजली आने-जाने का झंझट,न लाइन खराब होने का डर,लेकिन वक्त के साथ ही कुओं की उपेक्षा होती चली गई और आज इनका अस्तित्व खत्म होने के कगार पर है। साहित्यिक संस्था निर्झर के संयोजक धनेश पाण्डेय चिंता व्यक्त करते हुए बताया कि 80 के दशक तक जगह - जगह कुएं होते थे। कुछ गलियों की तो पहचान ही कुओं के चलते होती थी, लेकिन तेजी से वक्त के घुमते पहिए में कहीं इन पर कब्जे हो गए तो कहीं कुओं को पाट दिया गया। लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध में यह सब गुजरे सुनहरे दौर की याद बनकर रह गई। पूर्व डायट प्रवक्ता दिवाकर पाण्डेय ने बताया कि आज भी कुंआ पूजन की परम्परा गांवों में कायम है।कुएं के अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए पुनः कुएं के निर्माण करने की दिशा में ठोस कदम उठाने पर विचार करने की आवश्यकता है।
रिपोर्ट : धनेश पाण्डेय
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