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अंतर्देशीय पत्रों में लिखे शब्दों की अनुभूति अनोखी होती थी

 



बलिया ।  दो अक्टूबर 1950 में भारत में अंतर्देशीय पत्रों का प्रचलन शुरू हुआ था। आज भले ही सोशल प्लेटफॉर्म पर लोग संदेश भेजते हों या नई पीढ़ी इससे भलीभांति परिचित न हो परंतु अंतर्देशीय पत्रों में अपने विचारों, संदेशों को लिखने - पढ़ने में जो अनुभूति होती थी। वह डिजिटल युग में कदापि नहीं है। लोग महीनों अपने अंतर्देशीय पत्र द्वारा जवाब की प्रतीक्षा करते थे। उस प्रतीक्षा में व्याकुलता का अपना एक अलग ही अनुभव व रोमांच था।

     जनपद के साहित्यकार व शिक्षक डॉ नवचंद्र तिवारी  बताते हैं। मैंने तो अभी भी अपने पोस्टकार्ड व अंतर्देशीय पत्रों को बड़े सलीके से सहेज कर रखा है। उस समय  पोस्टकार्ड 15 पैसे व अंतर्देशीय पत्र 75 पैसे का आता था। यदि पैसे नहीं हो तो बैरन चिट्ठी से काम चल जाता था। चिट्ठी पर तो पर हिंदी फिल्मों में अनेक गाने भी बन चुके हैं। क्या वे दिन थे! तरह-तरह की खबरों/संदेशों /विचारों को प्रेषित करने का जरिया अंतर्देशीय पत्र होता था।

      डाकिया को देखते ही लोग घरों से निकल पड़ते व आसमानी रंग वाले अपने अंतर्देशीय पत्रों के बारे में बड़ी उत्सुकता से पूछते। व्हाट्सएप, फेसबुक या इंस्टाग्राम जैसे आधुनिक तंत्र में तो संदेश डिलीट हो सकता है। परंतु पत्रों में अंकित शब्दों की उत्कृष्टता व रोमांच तो सदैव के लिए मधुर स्मृति हो जाती थी। इससे लिखने का शौक व भाव प्रवणता युक्त शब्द शुद्धता भी बढ़ती थी। परिवर्तन कितना भी हो जाए परंतु पत्रों की प्रासंगिकता रहेगी। रहनी भी चाहिए। इससे लोगों को रोजगार भी मिलता है। अतः प्रकाशित करने वाली अनेक संस्थाएं भी चिट्ठी - पत्रों को प्राथमिकता देती हैं। इसी उद्देश्य से डाक विभाग इस बार पत्र लेखन प्रतियोगिता कर रहा है। जिसमें लेख भेजने की अंतिम तिथि 31 अक्टूबर है। इसमें पुरस्कार के निमित्त विविध राशियां भी रखी गई हैं।


By- Dhiraj Singh

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