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बदल गया होली का स्वरूप,महीने भर चलने वाला धमाल अब नहीं दिखता




गड़वार(बलिया) बदलते जमाने के साथ होली का स्वरूप भी बदल गया है।आधुनिकता के दौर में महीने भर तक चलने वाला होली का धमाल कहीं खो चुका है। अब गांवों में होली के गीत सुनाई नही पड़ते।होली मनाने के ढंग में ही नही होली मिलन,होली के पकवान और रंग खेलने तक में बदलाव आ गया है। होली आने के एक महीने पहले ही घरों में पापड़, चिप्स आदि बनने लगते थे। सप्ताह भर पहले से गुझिया,मिठाइयां और तरह-तरह के पकवान बनने शुरू हो जाते थे। इन लजीज व्यंजनों की सोंधी महक अब नही रही,उसकी जगह बाजार में बिकने वाली रेडीमेड वस्तुओं और पकवानों ने ले ली है। पहले होली में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग होता था। लोग टेंशु के फूलों को उबालकर रंग बनाते थे। अब सिंथेटिक रंगों के प्रयोग से चेहरे छाले पड़ जाते हैं। होली पर गांव में श्री राधा-कृष्ण  के प्रेम पर आधारित लोकगीतों की धूम रहती थी। इन फगुआ गीतों की जगह अब फूहड़ गीतों ने ले ली है। रंग खेलने के बाद शाम को नए कपड़ों में लोग सज धज कर निकल पड़ते थे। अब लोग केवल औपचारिकता निभाने के बाद छुट्टी मनाते हैं तथा मोहल्ले में भी सब से मिलने की जहमत नही उठाते।बच्चों का उत्साह भी रंग खेलने तक ही सीमित रह गया है। जिससे होली का स्वरूप ही बदल गया है। शिक्षक प्रेमनारायन पाण्डेय ने बताया कि वह होली कुछ और थी अब तो बस नाम की होली रह गई है। फागुन लगते ही टेंशु के फूलों को इकट्ठा कर प्राकृतिक रंग खेलने की तैयारी शुरू कर देते थे। बच्चों और युवाओं की अलग-अलग टोली तैयार होती थी।जमकर रंग खेलते थे। खूब आनंद आता था अब वह नहीं है। आर्किटेक्ट इंजी.श्री गणेश पाण्डेय ने बताया कि फागुन मास लगते ही लोगों पर होली का सुरूर छाने लगता था। लोग रंग लगाने के लिए नए-नए तरीके निकालते थे।रंग के दिन जो मिल गया उसे टेंशू केशरिया रंग में रंग देते थे। पूरे दिन गांव में टोलियां निकलती थी। ढोलक और मजीरों की थाप पर फाग की चौपाल में नाच होता था। काफी दूर से गांव में लोग नचनिया लेकर आते थे। शान मुहम्मद ने बताया कि होली का त्योहार अब पहले जैसा नही रहा। 15 दिन पहले और 15 दिन बाद तक होली की रौनक रहती थी। पहले आज के जैसे संसाधन नही थे लेकिन दिलों में प्रेम था। होलाष्टक लगते ही लोग दिन भर काम करने के बाद शाम को चौपाल में इकठ्ठे होकर ढोलक और मजीरे की थाप पर होली के गीत गाते थे। वह गीत अब सुनाई नही देते। शिवप्रसाद पाण्डेय ने बताया कि पहले लोग गांव में नाली के कीचड़ किसी पर डालते थे तो लोग गाली देते थे जिसका कोई बुरा नही मानता था। अक्सर गाली सुनने के लिए ही लोग धूल,कीचड़ डालते थे। अब अगर किसी पर कीचड़ या मिट्टी डाल दिया जाए तो बवाल होने का अंदेशा बना रहता है। बसंत पंचमी को ही रेड़ का पेड़ गाड़ दिया जाता था। और उसी दिन से फाग के गीत शुरू हो जाता था।


रिपोर्ट : धनेश पाण्डेय

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